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Thursday, April 15, 2010

भारतीय धर्म-दर्शन की परंपरा और भक्ति आंदोलन-1

भारतीय धर्म-दर्शन की परंपरा और भक्ति आंदोलन-1

 
भारतीय परंपरा में जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये जीवन का मूल तत्व या पदार्थ भी हैं, जिन्हें प्राप्त कर लेना मानव जीवन की वास्तविक उपलब्धि कही जा सकती है। इनमें से पहले तीन की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है, जबकि चौथे के लिए मृत्यु के पार दस्तक देना जरूरी है। इस बारे में आगे चर्चा करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि मोक्ष क्या है। भारतीयपरंपरा में इसका सीधा सीधा मतलब है मुक्ति, यानी संसार के आवागमन से दूर हो जाना। सामान्यत इसका अर्थ उस स्थिति से लिया जाता है जब आत्मा परमात्मा में मिलकर उसका अभिन्न-अटूट हिस्सा बन जाती है। दोनों के बीच का सारा द्वैत विलीन हो जाता है। यह जल में कुंभ और कुंभ में जल की सी स्थिति है। जल घड़े में है, घड़ा जल में। घड़ा यानी पंचमहाभूत से बनी देह। पानी की दो सतहों के बीच फंसी मिटटी की पतली सी क्षणभंगुर दीवार, जिसकी उत्पत्ति भी जल यानी परमतत्त्व के बिना संभव नहीं।

 

वेदांत की भाषा में जो माया है। तो उस पंचमहाभूत से बने घट के मिटते ही उसमें मौजूद सारा जल सागर के जल में समा जाता है। सागर में मिलकर उसी का रूपधारण कर लेता है। यही मोक्ष है जिसका दूसरा अर्थ संपूर्णता भी है, आदमी को जब लगने लगे कि जो भी उसका अभीष्ट था, जिसको वहप्राप्त करना चाहता था, वह उसको प्राप्त हो चुका है। उसकी दृष्टि नीर-क्षीर का भेद करने में प्रवीण हो चुकी है। जिसके फलस्वरूप वह इस संसार की निस्सारता को, उसके मायावी आवरण को जान चुका है। साथ ही वह इस संसार के मूल और उसके पीछे निहित परमसत्ता कोभी पहचानने लगा है। उसे इतना आत्मसात कर चुका है कि उससे विलगाव पूर्णत: असंभव है। अब कोई भी लालच, कोई भी प्रलोभन कोई भी शक्ति अथवा डर उसको अपने निश्चय से डिगा नहीं सकता। इस बोध के साथ ही वह मोक्ष की अवस्था में आ जाता है। तब उसकोजन्म-मरण के चक्र से गुजरना नहीं पड़ता। 

मुक्ति का दूसरा अर्थ है आत्मा की परमात्मा के साथ अटूट संगति। दोनों में ऐसी अंतरगता जिसमें द्वैत असंभव हो जाए। परस्पर इस तरह घुल-मिल जाना कि उनमें विलगाव संभव ही न हो। जब ऐसी मुक्ति प्राप्त हो, तब कहा जाता है कि सांसारिक व्याधियों से दूरमन पूरी तरह निस्पृह निर्लिप्त हो चुका है। जैन दर्शन में इस अवस्था को कैवल्य' कहा गया है। कैवल्य यानी अपनेपन की समस्तअनुभूतियों का त्यागकर 'केवल वही' का बोध रह जाना। यह बोध हो जाना कि मैं भी वहीं हूं और एक दिन उसी का हिस्सा बन जाऊंगा।उस समय न कोई इच्छा होगी न आकांक्षा। न कोई सांसारिक प्रलोभन मुझे विचलित कर पाएगा। इसी स्थिति को बौद्ध दर्शन में 'निर्वाण' कीसंज्ञा दी गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-'बुझा हुआ'। व्यक्ति जब इस संसार को जान लेता है, जब वह संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की, कीचड़ में कमल जैसी निर्लिप्तता प्राप्त कर लेता है, तब मान लिया जाता है कि वह इस संसार को जीत चुका है।

इच्छा-आकांक्षाओं और भौतिक प्रलोभनों से सम्यक मुक्ति ही निर्वाण है। गीता में इस स्थिति को कर्म, अकर्म और विकर्म के त्रिकोण के द्वारा समझाने का प्रयास किया गया है। उसके अनुसार संसार में सभी व्यक्तियों के लिए कुछ न कुछ कर्म निर्दिष्ट हैं। जब तक यह मानव देहहै, कर्तव्य से सरासर मुक्ति असंभव है। क्योंकि देह सांस लेने का, आंखें देखने का कान, सुनने का काम करती रहती है। संन्यासी को भीइन कर्तव्यों से मुक्ति नहीं। जब तक प्राण देह में हैं, तब तक उसको देह का धर्म निभाना ही पड़ता है। तब मुक्ति का क्या अभिप्राय: है! बुद्ध कहते हैं कि देह में रहकर भी देह से परे होना संभव है। हालांकि उसके लिए लंबी साधना और नैतिक आचरण की जरूरत पड़ती है। मोक्ष और निर्वाण दोनों ही अवस्थाओं में जीव जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा लेता है। लेकिन मोक्ष मृत्यु के पार की अवस्थाहै। जबकि निर्वाण के लिए जीवन का अंत अनिवार्य नहीं।

गौतम बुद्ध ने सदेह अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया था। जैन दर्शन के प्रवर्त्तकमहावीर स्वामी भी जीते जी कैवल्य-अवस्था को पा चुके थे। किंतु सभी तो उनके जैसे तपस्वी-साधक नहीं हो सकते। तब साधारण जन क्या करें। तो उसके लिए सभी धर्म-दर्शनों में एक ही मंत्र दिया गया है। और वह है अनासक्ति। संसार में रहकर भी संसार के बंधनों से मुक्ति, धन-संपत्ति की लालसा, संबंधों और मोहमाया के बंधनों से परे हो जाना, अपने-पराये के अंतर से छुटटी पा लेना, जो भी अपने पासहै उसको परमात्मा की अनुकंपा की तरह स्वीकार करना और अपनी हर उपलब्धि को ईश्वर के नाम करते जाना, यही मुक्ति तक पहुंचने का सहजमार्ग है। इसी को सहजयोग कहा गया है। उस अवस्था में कामनाओं का समाजीकरण होने लगता है। इच्छाएं लोकहित के साथ जुड़कर पवित्र हो जाती हैं। उस अवस्था में व्यक्ति का कुछ भी अपना नहीं रहता। वह परहित को अपना हित, जनकल्याण में निज कल्याणकी प्रतीति करने लगता है।

दूसरे शब्दों में मुक्ति का एक अर्थ निष्काम हो जाना भी है निष्काम होने का अभिप्राय निष्कर्म होना अथवा कर्म से पलायन नहीं है। कर्म करते हुए, सांसारिक कर्र्मो में अपनी लिप्तता बनाएरखकर भी निष्काम हो जाना सुनने में असंभव और विचित्र सा लगता है? नादान अकर्मण्यता को ही निष्काम्यता का पर्याय मान लेता है। कुछ लोग निष्काम होने के लिए संन्यास की शरण में जाते रहे हैं। लेकिन देह पर संन्यासी बाना धारण कर वन।वन घूमने से तो सचमुचका वैराग्य संभव नहीं। जब तक मन मोहमाया से ग्रस्त है तब तक कर्मसंन्यास की वास्तविक स्थिति कैसे संभव हो सकती है। इस उलझन को सुलझाने का रास्ता भी गीता मैं है। कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा का त्याग कर दो। निष्काम कर्म यानी कर्म करते हुए कर्म का बोध न होने देना, यह प्रतीति बनाए रखना कि मैं तो निमित्तमात्र हूं, कर्ता तो कोई और है, 'त्वदीयं वस्तु गोविंदम तुभ्यमेवसमप्यते' भावना के साथ सारे कर्म, समस्त कर्मफलों को ईश्वर-निर्मित मानकर उसी को समर्पित करते चले जाना ही कर्मयोग है। कर्म करते हुए फल की वांछा का त्याग ही विकर्म है, और यह प्रतीति कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं, जो किया परमात्मा के लिए किया, जो हुआ परमात्मा के इशारे पर उसी के निमित्त हुआ, यह धारणा कर्म को अकर्म की ऊंचाई जक पहुंचा देती है। संसार से भागकर कर्म से पलायन करने की अपेक्षा संसार में रहते हुए कर्मयोग को साधना कठिन है। इसीलिए तो श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्मसंन्यास कर्मयोग की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है, तो भी कर्मयोगी होना कर्म संन्यासी की अपेक्षा विशिष्ट उससे बढ़कर है:

कर्मयोगेश्व कर्मसंन्यासयात निश्रेयंस कराभुवौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात कर्मयोगी विशिष्यते।।

कर्मयोगी होना तलवार की धार पर चलकर मंजिल को तक पहुंचना है। सांसारिक प्रलोभनों से दूर होने के लिए उससे भाग जाना कर्म संन्यास में संभव है, मगर कर्मयोगी को तो संसार में रहते हुए ही उसके प्रलोभनों से निस्तार पाना होता है। ऐसे कर्मयोग को साधाकैसे जाए! संसार में रहकर उसके मोह से कैसे दूर रहा जाए, इसके लिए विभिन्न धर्मदर्शनों में अलग-अलग विधान हैं, हालांकि उनकामूलस्वर प्राय एक जैसा है। मुनिगण इसके लिए तत्व-चिंतन में लगे रहते हैं। ऋषिगण मानव-व्यवहार को नियंत्राित और मर्यादित रखने के लिए नूतन विधान गढ़ते रहते हैं। प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा चार पुरुषार्थों की अभिकल्पना भी इसी के निमित्त की गई है।हिंदू परंपरा के चारों पुरुषार्थ असल जीवन के विभिन्न अर्थों में बहुआयामी सिद्धियों के भी सूचक हैं। धर्मरूपी पुरुषार्थ को साधनेका अभिप्राय है, कि हम लोकाचार में पारंगत हो चुके हैं। संसार में रहकर क्या करना चाहिए, और क्या नहीं इस सत्य को जान चुके हैं। और हम जान चुके हैं कि यह समस्त चराचर सृष्टि, भांति।भांति के जीव, वन।वनस्पति एक ही परमचेतना से उपजे हैं। एक ही परम।पिताकी संतान होने के कारण हम सब भाई भाई हैं। ध्यान रहे कि धर्म का मतलब पुरुषार्थ के रूप में सिर्फ परमात्मा तक पहुंचने का, उसकोजानने की तैयारी करना अथवा जान लेना ही नहीं है। ये सब बातें अध्यात्म के खाते में आती हैं। तब धर्म क्या है?

इस बारे में मनुस्मृति मेंएक दृष्टांत दिया गया है। धर्म क्या है, यह जानने के लिए ऋषिगण भृगु मुनि के निकट पहुंचे। मुनि के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखते हुए उन्होंने कहा—'महाराज! हम धर्म जानना चाहते हैं?' इसपर भृगु जी ने उत्तर दिया–'जो अच्छे विद्वान लोग हैं, जो सबके प्रति कल्याण-भाव रखते हैं, वे जो आचरण करते हैं, सेवित करते हैं, उनके द्वारा जो आचरित होता है, वही धर्म है। धर्म की इस परिभाषा में न तो आत्मा है, न ही परमात्मा। दूसरे शब्दों में धर्म नैतिकता और सदाचरण का पर्याय है। भारतीय मेधा को अपने अद्वितीय तत्वचिंतन के कारण विश्वभर में सराहना मिली है। प्रमुख भारतीय दर्शनों न्याय, वैशेषिक, जैन, बौद्ध, चार्वाक, मीमांसा और वेदांत आदि सभी में विद्धान मुनिगण अपनी-अपनी तरह से जीवन और सृष्टि के रहस्यों की पड़ताल करने का प्रयास करते हैं। उनके दर्शन में कल्पना की अदभुत उड़ान है। इनमें से जैन, बौद्ध और वेदांत दर्शन तात्विक विवेचना के साथ।साथ जीवनको सरल और सुखमय बनाने के लिए व्यावहारिक सिद्धांत भी देते हैं। बौद्ध अष्ठधम्म पद की राह सुझाता है। जैन इसी तथ्य को और सहजता से जानने के लिए एक कहानी का सहारा लिया जा सकता है।  

एक राजा था। बहुत ही उदार,प्रजावत्सल। सभी का ख्याल रखने वाला। उसके राज्य में अनेक शिल्पकार थे। एक से बढ़कर एक, बेजोड़ राजा ने उन शिल्पकारों की दुर्दशा देखी तो उनके लिए एक बाजार लगाने का प्रयास किया। घोषणा की कि बाजार में संध्याकाल तक जो कलाकृति अनबिकी रहजाएगी, उसको वह स्वयं खरीद लगेगा। राजा का आदेश, बाजार लगने लगा।

एक दिन बाजार में एक शिल्पकार लक्ष्मी की ढेर सारी मूर्तियां लेकर पहुंचा। मूर्तियां बेजोड़ थीं। संध्याकाल तक उस शिल्पकार की सारी की सारी मूर्तियां बिक गईं। सिवाय एक के। वह मूर्ति अलक्ष्मी की थी। अब भला अलक्ष्मी की मूर्ति को कौन खरीदता! उस मूर्ति को न तो बिकना था, न बिकी। संध्या समय शिल्पकार उस मूर्ति को लेकरराजा के पास पहुंचा। मंत्री राजा के पास था। उसने सलाह दी कि राजा उस मूर्ति को खरीदने से इनकार कर दें। अलक्ष्मी की मूर्ति देखकर लक्ष्मीजी नाराज हो सकती हैं। लेकिन राजा अपने वचन से बंधा था।'मैंने हाट में संध्याकाल तक अनबिकी वस्तुओं को खरीदने का वचन दिया है। अपने वचन का पालन करना मेरा धर्म है। मैं इसमूर्ति को खरीदने से मना कर अपने धर्म से नहीं डिग सकता।'और राजा ने वह मूर्ति खरीद ली।दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर राजा सोने चला तो एक स्त्री की आवाज सुनकर चौंक पड़ा।

राजा अपने महल के दरवाजे पर पहुंचा। देखा तो एक बेशकीमती वस्त्रा, रत्नाभूषण से सुसज्जित स्त्री रो रही है। राजा ने रोने का कारण पूछा।'मैं लक्ष्मी हूं। वर्षों से आपके राजमहल में रहती आई हूं। आज आपने अलक्ष्मी की मूर्ति लाकर मेरा अपमान किया। आप उसको अभी इस महल से बाहर निकालें।''देवि, मैंने वचन दिया है कि संध्याकाल तक तो भी कलाकृति अनबिकी रह जाएगी, उसको मैं खरीद लूंगा।''उस कलाकार को मूर्ति का दाम देकर आपने अपने वचन की रक्षा कर ली है, अब तो आप इस मूर्ति को फेंक सकते हैं!''नहीं देवि, अपने राज्य के शिल्पकारों की कला का सम्मान करना भी मेरा धर्म है, मैं इस मूर्ति को नहीं फेंक सकता।''तो ठीक है, अपने अपना धर्म निभाइए। मैं जा रही हूं।' राजा की बात सुनकर लक्ष्मी बोली और वहां से प्रस्थान कर गई। राजा अपने शयनकक्ष की ओर जाने के लिए मुड़ा। तभी पीछे से आहट हुई। राजा ने मुड़कर देखा, दुग्ध धवल वस्त्रााभूषण धारण किए एक दिव्यआकृति सामने उपस्थित थी। 'आप?' राजा ने प्रश्न किया। 'मैं नारायण हूं। राजन आपने मेरी पत्नी लक्ष्मी का अपमान किया है। मैं उनके बगैर नहीं रह सकता। आप अपने निर्णय परपुनर्विचार करें।''मैं अपने धर्म से बंधा हूं देव।' राजा ने विनम्र होकर कहा।'तब तो मुझे भी जाना ही होगा।' कहकर नारायण भी वहां से जाने लगे।

राजा फिर अपने शयनकक्ष में जाने को मुड़ा। तभी एकऔर दिव्य आकृति पर उसकी निगाह पड़ी। कदम ठिठक गए।'आप भी इस महल को छोड़कर जाना चाहते हैं, जो चले जाइए, लेकिन मैं अपने धर्म से पीछे नहीं हट सकता।'यह सुनकर वह दिव्य आकृति मुस्कराई, बोली।'मैं तो धर्मराज हूं। मैं भला आपको छोड़कर कैसे जा सकता हूं। मैं तो नारायणको विदा करने आया था।'उसी रात राजा ने सपना देखा। सपने में नारायण और लक्ष्मी दोनों ही थे। हाथ जोड़कर क्षमायाचना करते हुए-'राजन हमसे भूल हुई है, जहां धर्म है, वहीं हमारा ठिकाना है। हम वापस लौट रहे हैं।' और सचमुच अगली सुबह राजा जब अपने मंदिर में पहुंचा तो वहां नारायण और नारायणी दोनों ही थे।

आप ऐसी कथाओं पर चाहें विश्वास न करें। परंतु इस तरह की कथाएं रची जाती रही हैं, ताकि मनुष्य अपने कर्तव्यपथ से, नैतिकता से बंधा रहे। धर्म और अध्यात्म का घालमेल कुछ धार्मिक कूप-मंडूकता और स्वार्थी राजनेताओं के छल का परिणाम है। वास्तव में तो धर्म उनजीवनमूल्यों में आस्था और उनका अभिधारण है, जिनके अभाव में यह समाज चल ही नहीं सकता। जिनकी उपस्थिति उसके स्थायित्व केलिए अनिवार्य है। विभिन्न समाजों की आध्यात्मिक मान्यताओं, उनकी पूजा पद्धतियों में अंतर हो सकता है, मगर उनके जीवनमूल्य प्राय: एकसमान और अपरिवर्तनीय होते हैं। जब हम धर्म की बात करते हैं और यह मान लेते हैं कि हमें संसार में रहकर अध्यात्म को साधनाहै तो मामला नैतिकता पर आकर टिक जाता है। नैतिकता बड़ी ऊंची चीज है। यह कर्मयोगी को राह दिखाती है, कर्मसंन्यासी कापथ।प्रशस्त करती है। नैतिक होना मनसा, वाचा कर्मणा पवित्रा होना भी है। आचरण की पवितत्राता, मन की पवित्राता और देह की पवित्राताही मानवधर्म है। यहां जब हम देह की बात करते हैं तो उसके पीछे उसका पूरा परिवेश स्वत: ही समाहित हो जाता है।

मनुष्य बौद्ध धर्म में इसे अष्ठधर्म के सिद्धांत के आधार पर समझाया गया है।दूसरा हिंदू पुरुषार्थ है, अर्थ। संसार में जीने के लिए, सामाजिकता को बनाए रखने के लिए, आपसी व्यवहार को सुसंगत रूप में चलाने के लिए धन अत्यावश्यक है। वह जीवन-व्यवहार को सहज और सुगम बनाता है। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनकी महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह सामाजिक प्रतिष्ठा का मूल है। मगर यहां एक पेंच है। धन को पुरुषार्थ मान लेने का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी तरीके से अर्जित किया गया धन पुरुषार्थ है। या धन है तो उसका हर उपयोग सामाजिक-धार्मिक दृष्टि से मान्य है। चोरी, डकैती, वेश्यावृति और जुआ जैसे दुर्व्यसनों से अर्जित धन को समाज में हेय माना गया है। यहां तक कि उसका तिरष्कार भी किया जाता है।

मनुष्यता के उत्थान के लिए साध्य और साधन दोनों की पवित्रता जरूरी है। अत्यधिक धन अर्जित कर लेना, दूसरे के हिस्से का धन हड़प लेना भी पुरुषार्थ नहीं है। धन के पुरुषार्थ मानने का अभिप्राय उससे जुड़े समूचे व्यवहार के मानवीकरण से है। अस्तेय और अपरिग्रह जैसी शास्त्रीय व्यवस्थाएं धर्नाजन और उससे जुड़े प्रत्येक व्यवहार को मानवीय बनाए रखने के लिए की गई हैं। जिसका अभिप्राय है कि चोरी-डकैती अथवा लोकमान्य विधियों से अलग ढंग से अर्जित किया गया धन पाप है। धन उतना ही होना चाहिए जितना कि गृहस्थ जीवन को सुगम बनाए रखने के लिए आवश्यक है। कबीर ने धनार्जन को लेकर बहुत अर्थपूर्ण बात कही है। साधु इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय,मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए। धन का अपव्यय आलोचना का विषय है तो उसे व्यय करने के लिए समझदारी की जरूरत पड़ती है। वृथा आडंबरों, लोक-दिखावे, कोरी प्रतिष्ठा, जुआ एवं शराबखोरी जैसे दुर्व्यसनों पर खर्च करने के  पुरुषार्थ-सिद्धि असंभव है।

दूसरे शब्दों में धन को पुरुषार्थ की गरिमा से विभूषित करना, तत्संबंधी प्रत्येक व्यवहार को मानवीय रूप प्रदान करना है। इस तरह सिर्फ लोकमान्य विधि से अर्जित धन को लोकमान्य तरीकों से खर्च करने में ही में पुरुषार्थ-सिद्धि संभव है। काम को हिंदू-परंपरा तीसरे पुरुषार्थ के रूप में मानती है। संसार को गतिमान बनाए रखने के लिए काम अत्यावश्यक है। इससे संततिचक्र आगे बढ़ता है। इसके लिए भी धार्मिक व्यवस्थाएं है। मुक्त, उच्छ्रंखल काम-संबंध समाज-व्यवस्था को न केवल धराशायी कर सकते हैं, बल्कि उसमें इतना विक्षोभ पैदा कर सकते हैं कि यह पूरा का पूरा सिस्टम ही छिन्न-भिन्न हो जाए। काम को नियमित-नियंत्रित करने के लिए ही विभिन्न सामाजिक संबंधों की व्यवस्था हुई है, उनके लिए मर्यादाएं निश्चित की गईं।

नैतिकता को बनाए रखने के लिएजो नियम बने उन्हें धर्म और धार्मिकता का आवरण प्रदान किया गया, जिससे वे अधिक से अधिक लोगों के लिए सहज ग्राहय: हो सकें। यहां तक कि उनके साथ आस्था का प्रसंग भी जोड़ा गया, ताकि वृहद सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उन्हें कुछेक व्यक्तियों के हित में तोड़ा-मरोड़ा न जा सके। वैवाहिक संस्था के गठन का प्रमुख उददेश्य काम-संबंधों को सामाजिक मर्यादा के दायरे में लाना ही है। निर्धारित कसौटियों पर खरे उतरने वाले काम-संबंध ही तीसरे पुरुषार्थ के रूप में मान्य कहे जा सकते हैं। प्रथम तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि के साथ मनुष्य जब धर्म को अपना आचरण बना लेता है, सदाचार और सदव्यवहार उसके रोजमर्रा के जीवन का अंग बन जाते हैं, 'अर्थ'और 'काम' के बीच जब वह संतुलन कायम कर चुका होता है, तब वह साधारण लोगों के स्तर से बहुत ऊपर पहुंच उठ जाता है, इसी को परमात्मा के करीब पहुंच जाना कहते हैं। यही मोक्ष की अवस्था है, जहां सिर्फ पवित्राता ही पवित्राता है। किसी भी प्रकार का विक्षोभ याविकार नहीं। यदि कोई विक्षोभ है, यदि कहीं विकार अथवा असंगति नजर आती है, तो दोष हमारी दृष्टि का है, उस विधान का है जो हमने अपनी सुविधा के हिसाब से प्राकृतिक नियमों को ताक पर रखकर रचा है।

हिंदू धर्म के चारों पुरुषार्थ मानव जीवन को मर्यादित करते हैं। मनुष्य को सिखाते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। लेकिन आप इसे जनसामान्य की दुनिया से उकताहट का परिणाम माने अथवा उसकी अपने आराध्य के प्रति समर्पण की तीव्र अभिलाषा, या फिर अलभ्य को पा लेने की जनसामान्य की सहज स्वाभाविक लालसा, जिसके कारण वह मात्रा नियंत्रित जीवनचर्या यानी पुरुषार्थ-चातुर्य प रनिर्भर नहीं रहना चाहता। मोक्ष की कामना उसको वैकल्पिक रास्तों तक ले ही जाती है। धर्मशास्त्रां में मुक्ति यानी परमात्मा को पाने के जोदो प्रमुखमार्ग बताए गए हैं, पहला है ज्ञानमार्ग। वस्तुत: मानव जिज्ञासा की पहली उड़ान इस सृष्टि और उसके रचियता के बारे में जान लेनेके बोध के साथ ही हुई थी। ज्ञानमार्गी के अनुसार ईश्वर की दी गई इंद्रियां और दिमाग उस तक पहुंचने का सर्वोत्तम माध्यम हैं। परमात्माको जान लेना ही उसको प्राप्त कर लेना है।ज्ञानमार्गी इसी विश्वास के साथ चिंतन।मनन में डूबे रहते थे। उनकी ज्ञानसाधना के सुफल के रूप में अनेक दर्शनों का जन्म हुआ। वेद, उपनिषद आदि महान ग्रंथों की रचना हुई।

ये उदाहरण सिर्फ भारत के हैं। विश्व की बाकी सभ्यताओं में सृष्टि से जुड़ी जिज्ञासा ने भी अनेक दर्शनों को जन्म दिया है। हालांकि इस क्षेत्रा में उनकी उपलब्धियां भारतीय मेधा का ही अनुसरण करती हुई नजर आईं। बल्कि कहना चाहिए कि वे भारतीय वांङमय की उत्कष्टृ व्याख्या अथवा पुनर्प्रस्तुति से आगे न बढ़ सकीं।ज्ञानमार्गी परंपरा को विस्तार देते हुए आदि शंकराचार्य ने नवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में अद्वैत दर्शन का विचार प्रस्तुतकिया था। उन्होंने जैमिनी के मीमांसा दर्शन द्वारा पोषित-प्रेरित और रूढ़ हो चुके कर्मकांड़ों तथा लोकायतों के विशुद्ध भौतिकवादी दर्शन केस्थान पर वेदांत दर्शन को स्थापित किया। इसके लिए उन्होंने देश के विभिन्न भागों में जाकर बौद्धों और मीमांसकों से गंभीर शास्त्राार्थ किएथे, जिनमें उनका मंडन मिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ जगत-प्रसिद्ध है। अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बल पर शंकराचार्य ने परमात्मा को अनित्य,अनादि, अनंत, अनश्वर, अविकल्प सत्ता माना था।

इसके समानांतर उनके परिवर्ती रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत दर्शन का सिद्धांत रखा। दोनों के ही विचारों में अवतारवाद को मान्यता दी गई थी, लेकिन शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित दर्शन में जीवन और सृष्टि के रहस्यों परअर्थिक तार्किक दृष्टि से विचार किया गया था। सृष्टि के मूल के रूप में शंकराचार्य ने 'बृह्म सत्यं जगन्न्मिथ्या' की अवधारणा के साथ जिसनिस्सीम, निर्विकल्प, अनादि और अनंत परमसत्ता की संकल्पना समाज के सामने रखी, वह वेदों और उपनिषदों से उदभूत थी, जिसके आगे ईश्वर और उसके अवतारों को बहुत कम महत्त्व दिया गया था। दूसरी ओर रामानुज ने सदेह ईश्वरवाद को महत्त्व देते हुए विष्णु को सृष्टि का पालक और संचालक माना। वेदांत दर्शन के अंतर्गत शंकराचार्य ने सृष्टि की तत्वमींमासीय व्याख्या की थी, उनके द्वारा स्थापित चारमठों में प्रमुख गोवर्धनपीठ का तो मुख्यवाक्य ही 'प्रज्ञानम बृह्म' (ज्ञान ही बृह्म) है। लेकिन जनसाधारण के लिए उन्होंने भक्ति को भी पर्याप्तमहत्ता दी। यही कारण है कि शंकराचार्य और उनका दर्शन स्मार्त्त और वैष्णव दोनों संप्रदायों में एकसमान प्रतिष्ठा प्राप्त कर सका। शंकराचार्य के प्रयासों से हिंदू धर्म संगठित हुआ। मगर कुछ ही अर्से बाद ज्ञान की उस परंपरा में ठहराव आने लगा।

कुछ स्वार्थी,धर्मान्ध और कर्मकांड-प्रिय लोगों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए समाज को जातीय आधार पर विभाजित करना आरंभ कर दिया।यहां तक कि वेद-शास्त्रां और पूजा-पद्धति के आधार पर भी नए।नए संप्रदाय बनने लगे। जातीय।स्तरीकरण को शास्त्रीय आधार प्रदान करनेके लिए स्मृति और पुराण गढ़े जाने लगे। परिणाम यह हुआ कि परमसत्ता के प्रतीक अनादि, अनश्वर, निराकार, निगुण 'बृह्म' का स्थान दो हाथ, दो पांव वाले देवताओं ने ले लिया। कर्मकांड और वर्गभेद के समर्थन पर टिकी इस व्यवस्था का ज्ञान की पुरातन परंपरा से कोई लगाव न था। विभिन्न मताबलंबियों के बीच आए दिन के विवाद छिड़ने और बहस का स्तर नीचे जाने से प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं कास्थूलीकरण होने लगा। परिणामस्वरूप चिंतनधारा सूखने लगी। कर्मकांडों और रूढ़ियों में फंसा धर्म अपनी ही मूल स्थापनाओं से परे हटने लगा।

इस नई परंपरा में जनसाधारण के लिए, सिवाय उसके सामाजिक आर्थिक सामाजिक शोषण के कोई और स्थान न था। एक के बाद एक दर्शनों की खोज एवं विशद चिंतनपरक भीमकाय ग्रंथों की रचना के बावजूद जब मुनिगण ज्ञान के द्वारापरमात्मा और उसकी सृष्टि के बारे में उठे प्रश्नों का सही और सटीक जबाव देने में नाकाम रहे तो लोगों को लगने लगा कि मनुष्य के बुद्धि विवेक की भी सीमा है। इनके माध्यम से जीवन और संसार की अनेक समस्याओं को सुलझाया तो जा सकता है, मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं को नित नए रूप और उड़ान भी दी जा सकती है। मगर इससे सृष्टि और उसकी संरचना से जुड़े अनगिनत प्रश्नों को पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता।


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